हिन्दी साहित्य का उत्तर मध्यकाल नामकरण की दृष्टि से पर्याप्त विवादों में घिरा रहता है. इसमें सामान्यत: श्रृंगारपरक लक्षण-ग्रंथों की रचना हुई है. जार्ज ग्रियर्सन, मिश्रबंधु, रामचंद्र शुक्ल आदि से लेकर अब तक के साहित्यिक इतिहासकारों नें ‘रीतिकाल’ नाम के विषय में अनेक मत प्रकट किए हैं. जार्ज ग्रियर्सन ने इसे ‘कला काल’ कहा है, जो इस काल के कवियों की विशिष्टता को पूर्ववर्ती कवियों से अलग दिखाता है. वहीं मिश्रबंधुओं ने इसे ‘अलंकृत काल’ कहा है, जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे ‘रीतिकाल’ और पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ‘श्रृंगार काल’ संज्ञा देते हैं.
इनमें से ‘अलंकृत काल’ एवं ‘रीतिकाल’ नाम रचना-पद्धति के आधार पर दिए गए, वहीं ‘श्रृंगार काल’ उस युग की रचनाओं के आधार पर हैं. परन्तु ‘अलंकृत’ नाम अधिक समीचीन नहीं प्रतीत होता है. मिश्रबंधुओं ने इसका समर्थन दिया कि इस युग की कविता को अलंकृत करने की परिपाटी अधिक थी. यह ठीक है कि इस काल में भाव की अपेक्षा कला, विशेषत: भाषिक संरचना की ओर कवियों का अधिक रूझान था. परन्तु इस युग के कवियों ने इतर काव्यांगों पर भी लिखा है. उन्होंने अलंकारों के अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है. संस्कृत काव्यशास्त्र में ‘अलंकार’ शब्द विविध काव्यांगों का बोधक अवश्य रहा है, परन्तु ‘अलंकृत’ शब्द इस युग की कविता का ही विशेषण हो सकता है लक्षण-ग्रंथों का नहीं. इतना ही नहीं, हिन्दी में ‘अलंकार’ शब्द काव्यांग विशेष के लिए रूढ़ हो गया है.आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल को ‘श्रृंगार काल’ नाम देने का आग्रह किया है. इस युग के लिए ‘रीति’ नाम देने वाले आचार्य शुक्ल तक ने इसे ‘श्रृंगार काल’ कहे जाने की छूट दी है. यह तर्क दिया जाता है कि इस युग के कवियों की व्यापक प्रवृत्ति श्रृंगार वर्णन ही थी. यह सही है कि इस युग की अधिकांश रचनाऐं श्रृंगारिक ही है, तथापि ये आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए ही लिखी गई हैं. इनका प्रेरक-तत्त्व कवियों की काम-वासना नहीं बल्कि 'अर्थ' है, जो विलासी-आश्रयदाताओं से ऐसी रचना कर प्राप्त किया जा सकता था. इस युग में ऐसे भी कवि हैं जो इस प्रकार के वर्णन से असंतुष्ट रहे हैं.
आगे के कवि रीझिहैं तो कविताई, न तौ
राधिका कन्हाई सुमिरन कौ बहानौ हैं.
स्पष्टत: इस प्रकार के काव्य को वे काव्य कहने में भी संकोच करते थे. गोप, सेवादास, आदि कवियों द्वारा अपने लक्षण-ग्रंथों में श्रृंगार का बहिष्कार भी इसे प्रमाणित करता है कि इन कवियों की प्रवृत्ति श्रृंगारिक नहीं थी. अनेक कवियों ने अपने ग्रंथों में प्राय: यह कहा है कि इनका निर्माण वे काव्य-रचना-पद्धति का ज्ञान कराने के लिए कर रहे हैं. उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है:
भाषा भूषण ग्रंथ को जो देखे चित लाय,
विविध अर्थ साहित्य रस ताहि सकल दरसाय.
-----------------------------------------------------जसवंत सिंह
बाँचि आदि ते अंत लों, यह समुझै जौ कोई
ताहि और रस ग्रंथ को फेरि चाह नहिं होई.
(रसलीन)
---------------------------------------------------वस्तुत: इस युग के कवि काव्यांग चर्चा में वैसे ही संलग्न थे, जिस तरह भक्ति काल में बह्मज्ञान चर्चा प्रसिद्ध है. यद्यपि उस अर्थ में ये कवि आचार्य नहीं हैं जिसमें संस्कृत के काव्यशास्त्र विषयक आचार्य आते हैं. तथापि डॉ. नगेन्द्र ने “स्वच्छ और सुबोध निरूपण के कारण शिक्षक के अर्थ में आचार्य” माना है. ये कवि यदि श्रृंगार को ही अपना उद्देश्य मानते तो लक्षणों के बंधन को कदापि स्वीकार नहीं करते. शास्त्र का बंधन भावों के उच्छलन में बाधा ही उत्पन्न करता है.
बिहारी जैसे कवियों ने लक्षण-ग्रंथों के फेर में न पड़कर स्वतंत्र रूप से श्रृंगारिक रचनाएँ की हैं. किन्तु इसके मूल में बिहारी की श्रृंगारिक-प्रवृत्ति नहीं थी, बल्कि ये भी विलासी आश्रयदाताओं की ही देन कही जा सकती है.
वैसे यदि ‘श्रृंगार काल’ विशेषण मान भी लिया जाए तो इस नामकरण में अव्याप्ति दोष है. क्योंकि वीर, भक्ति, नीति आदि श्रृंगारेत्तर रसों में रचे गए तथा काव्यांग-निरूपण की दृष्टि से लिखित अनेक महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध लक्षण-ग्रंथ इसकी परिसीमा में न आ सकेंगे. अत: कहा जा सकता है कि इस युग विशेष को श्रृंगारकाल कहना युक्ति-युक्त नहीं है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में नामकरण का आधार विशिष्ट रचना-प्रवृत्ति को बनाना उपयुक्त समझा. मध्यकाल को शुक्ल जी ने पूर्वमध्यकाल और उत्तर मध्यकाल में विभक्त कर पूर्व को भक्तिकाल और उत्तर को रीतिकाल नाम दिया है. रीतिकाल से तात्पर्य उस काल से नहीं है जिसमें रीति-सम्प्रदाय की प्रवृत्ति हो, अपितु इससे तात्पर्य रीति-परम्परा के अनुसरण की प्रवृत्ति से है. परम्परा के अर्थ में ‘रीति’ शब्द का प्रयोग स्वयं इस कालखण्ड के कवियों ने किया है. “कवित्त की रीति सिखी सुकविन सों” स्वीकारने वाले कवियों ने यत्र-तत्र 'रसरीति', 'कवित्त रीति', 'कविरीति' आदि की चर्चा की है. यह रीति शब्द इस कवियों को रस, अलंकार, छंद आदि सभी काव्यांग-बोधक इकाई के रूप में अभिप्रेत है.
इतना ही नहीं रीति-निरूपण की प्रवृत्ति अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि और परम्परा के साथ आई थी. भक्तिकाल में ही काव्यशास्त्र चर्चा का विषय बन चुका था. नन्ददास द्वारा ‘रसमंजरी’ जैसा नायिका-भेद संबंधी ग्रंथ लिखा जाना तथा तुलसी द्वारा “धुनि अवरेब कवित गुन जाती मीन मनोहर ते बहु भांति” आदि कहा जाना इसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त है. इसके साथ ही रहीम, सुन्दर, केशव, आदि कवियों ने इस विषय को आगे बढ़ाया जो आगे चलकर साधारण कवियों के लिए आमफहम हो गया. इस नाम को स्वीकार लेने से सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी सीमा में श्रृंगारिक रचनाऐं, लक्षण-ग्रंथों से लेकर अन्य काव्यांग-विवेचन संबंधी ग्रंथ भी आ जाते हैं.
यद्यपि रीतिकाल संज्ञा भी अपने आप में व्यापक नहीं है, क्योंकि घनानन्द, बोधा, ठाकुर, आलम, सूदन आदि कवि इसके अंतर्गत नहीं आ पाते. इन्होंने अपनी रचनाओं में न तो काव्यांग-निरूपण किया है और न ही बिहारी की तरह इन पर काव्यशास्त्र का प्रभाव ही रहा. लेकिन जिस प्रकार सूदन, जोधराज जैसे वीर कवि वीरगाथा काल में नहीं रखे जा सकते, वैसे घनानन्द जैसे ही कवि स्वच्छंदतावाद के खाते में नहीं डाले जा सकते हैं. इसी प्रकार वृंद जैसे कवियों की रचनाएँ भक्तिकाल में नहीं रखी जा सकती. पुरानी परम्परा के ग्रंथ तो प्रत्येक युग में मिल ही जाते हैं.
घनानन्द, आलम आदि उत्कृष्ट कोटि के कवियों की प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही विद्वान इतिहासकारों ने ‘रीतिमुक्त’ संज्ञा का प्रयोग किया है. यदि इनकी रचनाओं को श्रृंगार कहते हुए फुटकल कोटि में डालते हुए, इस काल को ‘श्रृंगार काल’ कहा जाए तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि इनकी रचनाएँ संस्कृत काव्यशास्त्र की दृष्टि से श्रृंगारिक नहीं है अपितु ये फ़ारसी की प्रेमाभिव्यक्ति की पद्धति का भारतीय रूप है. अत: इसे न ‘श्रृंगारकाल’ की परिधि में लिया जा सकता है और न ‘रीतिकाल’ में ही. इनका अपना एक अलग वर्ग था. और चूँकि इनकी काव्य-पद्धति प्रचलित न हो सकी, इसलिए अलग से इस काल का नामकरण करना उचित नहीं जान पड़ता.
वस्तुत: रीतिकाल के आचार्य, कवि और टीकाकारों ने रीति शब्द को परम्परा के अर्थ में लिखा था, “रीतिरात्मा काव्यस्य” के अर्थ में नहीं. अत: रीतिकाल का अर्थ है वह काल जिसमें काव्यशास्त्र की परम्परा में बँधकर या प्रभावित होकर काव्य लिखा गया. रीतिकालीन साहित्य का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि रीतिकाल में सभी कवियों की प्रवृत्ति या तो आचार्य बनने की रही या राजसभा में सम्मान पाने की. रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध दोनों प्रकार के कवियों में यह प्रवृत्ति समान रूप से पायी जाती है. स्वच्छंद कहे जाने वाले कवियों में परम्परा से मुक्ति नहीं है लेकिन वे रीतिबद्ध कवियों की भाँति भी नहीं हैं. अत: उन्हें रीतिमुक्त संज्ञा से अभिहित किया गया है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस काल का नाम रीतिकाल की अधिक सार्थक एवं सटीक है.