सोमवार, 26 दिसंबर 2016

रीतिकाल के नामकरण और उसके भेद का विवेचनात्मक अध्ययन –

रीतिकाल के नामकरण और उसके भेद का विवेचनात्मक अध्ययन –

हिंदी साहित्य में उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल के नाम से जानते हैं, इसकी समय सीमा सन 1643 – 1843 तक ठहरती है. रीति शास्त्र के प्रमुख आचार्य वामन ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘काव्यालंकार’ में रीति को काव्य की आत्मा कहा- रीतिर्रात्मा काव्यस्य. इसके इसे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि विशिष्ट पद रचना रीति: अर्थात काव्य में यदि विशिष्ट रचना का उपयोग किया गया है, तो वह रीति काव्य है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसका कार्यकाल सम्वत 1650 – 1900 तक ठहरता है. रीति काल के ग्रंथों का अवलोकन करने पर श्रृंगार रस की प्रधानता, अलंकारों की बहुलता, मुक्तक शैली की प्रधानता, नारी का भोग्या स्वरुप, लक्षण ग्रंथों की बहुलता, प्रकृति का उद्दीपन रूप, सामन्ती अभिरुचि, भक्ति एवं वैराग्य का मिश्रण, आश्रयदाता की प्रशंसा रूप आदि प्राप्त होते हैं.रीतिकाल के नामकरण को लेकर हिंदी साहित्य मनीषियों में बहुत मतभेद रहा है. अपने अध्ययन और समझ के अनुसार विभिन्न विद्वानों ने इसे नये-नये नाम से पुकारा. उन्होंने अपने नामकरण के पीछे निहित तथ्यों को भी बताया. जो इस प्रकार है-

१.     आचार्य रामचंद्र शुक्ल – रीतिकाल
२.     आचार्य मिश्र बन्धु – अलंकृत काल
३.     आचार्य विश्वनाथ प्रसाद – अलंकृत काल
४.     डॉ. रसाल – कला काल
रीतिकाल की रचनाओं को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
१.     रीतिसिद्ध काव्यधारा – इस काव्यधारा के अंतर्गत आने वाले कवि मुख्य रूप से आचार्य हैं. उन्होंने अपनी कविताओं ने शास्त्रीय ढंग का उपयोग किया है. इन सभी ने कविता के साथ-साथ लक्षण ग्रंथों की भी रचना की है.
रीतिसिद्ध काव्यधारा के प्रमुख कवि – चिंतामणि, केशवदास, मतिराम, देव, कुलपति, भिखारीदास, पद्माकर, ग्वाल आदि.
उदाहरण –
गोर गात, पातरी, न लोचन समात मुख,
२.     रीतिबद्ध काव्यधारा – इस काव्यधारा के अंतर्गत आने वाले कवियों ने लक्षण ग्रंथों की रचना तो नहीं की. लेकिन लक्षण ग्रंथों का खूब गहराई से अध्ययन किया. जिसके कारण जब उन्होंने काव्य रचना कार्य शुरू किया तो लक्षण ग्रन्थ द्वारा निर्धारित सीमाओं का ध्यान रखा.
रीतिबद्ध काव्यधारा के प्रमुख कवि – बिहारी, रसनिधि, सेनापति आदि.
उदाहरण –
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहीं कोय,
ज्यों – ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जवल होय.
३.    रीतिमुक्त काव्यधारा – इस काव्यधारा के कवियों ने लक्षण ग्रंथों द्वारा निरधारित काव्य रचने की परिपाटी का ख्याल नहीं रखा. स्वच्छंद होकर काव्य रचना की. जिसके कारण उनके कविताओं का स्वरुप जनमानस के अधिक करीब रहा. इनकी रचनाओं में विशुद्ध प्रेम का उत्कृष्ट रूप मिलता है.
रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि – घनानंद, बोधा, ठाकुर, आलम, द्विजदेव आदि.
उदाहरण –
भये अति निठुर, मिटाय पहिचान डारी,
याही दुःख हमें जक, लागी हाय-हाय है,
तुम तो निपट निरदई, गयी भूलि सुधि,
हमें शूल-सेलनि सो क्यूँ ही न भुलाय है.
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि नामकरण के रूप में आचार्य रामचंद शुक्ल का नामकरण ज्यादा समीचीन है. उन्होंने नामकरण के लिए केवल शास्त्रीय सहारा नहीं लिया है, बल्कि अध्ययन और उस काल के ग्रंथों की वैज्ञानिकता को भी तरजीह दी है. इसी तरह तीनों धाराओं के कवियों ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से इसे पूर्णता ही प्रदान की है.

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