शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल

 भक्तिकाल



हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 ईo से 1700 ईo तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।
दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्यप्रमुख थे।

मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

हिंदी प्रश्नोत्तर. ('हिन्दी साहित्य के इतिहास.) ( 'भाषा समूह)

हिंदी प्रश्नोत्तर

1.1. संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल की गई चार नई भाषाएँ हैं? →संथाली, मैथिली,बोडो और डोगरी
2. भारतीय भाषाओं को कितने प्रमुख वर्गों में बाँटा गया है? →4
3. भारत में सबसे अधिक बोला जाने वाला भाषायी समूह है? →इण्डो-आर्यन
4. भारत में सबसे कम बोला जाने वाला भाषायी समूह है? →चीनी-तिब्बती
5. ऑस्ट्रिक भाषा समूह की भाषाओं को बोलने वालों को कहा जाता है?→ किरात
6. 'जो जिण सासण भाषियउ सो मई कहियउ सारु। जो पालइ सइ भाउ करि सो तरि पावइ पारु॥' इस दोहे के रचनाकार का नाम है?→ देवसेन
7. चीनी-तिब्बती भाषा समूह की भाषाओं के बोलने वालों को कहा जाता है?→ निषाद
8. अपभ्रंश के योग से राजसाषानी भाषा का जो साहित्यिक रूप बना, उसे कहा जाता है?→ डिंगल भाषा
9. 'एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा ज्यों पानी।' यह पंक्ति किस भाषा की है?→ ब्रजभाषा
10. अमीर ख़ुसरो ने जिन मुकरियों, पहेलियों और दो सुखनों की रचना की है, उसकी मुख्य भाषा है?→खड़ीबोली
11. देवनागरी लिपि को राष्ट्रलिपि के रूप में कब स्वीकार किया गया था?→ 14 सितम्बर1949
12. 'रानी केतकी की कहानी' की भाषा को कहा जाता है?→ खड़ीबोली

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

रीतिकाल

   रीतिकाल 

सन् १७०० ई. के आस-पास हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया। इसे विशेषत: तात्कालिक दरबारी संस्कृति और संस्कृत साहित्य से उत्तेजना मिली। संस्कृत साहित्यशास्त्र के कतिपय अंशों ने उसे शास्त्रीय अनुशासन की ओर प्रवृत्त किया। हिंदी में 'रीति' या 'काव्यरीति' शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रसअलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को 'रीतिकाव्य' कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृतप्राकृतअपभ्रंशफारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं।
इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्तसवैये और दोहे इस युग में लिखे गए।

रीतिकाल के नामकरण और उसके भेद का विवेचनात्मक अध्ययन –

रीतिकाल के नामकरण और उसके भेद का विवेचनात्मक अध्ययन –

हिंदी साहित्य में उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल के नाम से जानते हैं, इसकी समय सीमा सन 1643 – 1843 तक ठहरती है. रीति शास्त्र के प्रमुख आचार्य वामन ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘काव्यालंकार’ में रीति को काव्य की आत्मा कहा- रीतिर्रात्मा काव्यस्य. इसके इसे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि विशिष्ट पद रचना रीति: अर्थात काव्य में यदि विशिष्ट रचना का उपयोग किया गया है, तो वह रीति काव्य है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसका कार्यकाल सम्वत 1650 – 1900 तक ठहरता है. रीति काल के ग्रंथों का अवलोकन करने पर श्रृंगार रस की प्रधानता, अलंकारों की बहुलता, मुक्तक शैली की प्रधानता, नारी का भोग्या स्वरुप, लक्षण ग्रंथों की बहुलता, प्रकृति का उद्दीपन रूप, सामन्ती अभिरुचि, भक्ति एवं वैराग्य का मिश्रण, आश्रयदाता की प्रशंसा रूप आदि प्राप्त होते हैं.रीतिकाल के नामकरण को लेकर हिंदी साहित्य मनीषियों में बहुत मतभेद रहा है. अपने अध्ययन और समझ के अनुसार विभिन्न विद्वानों ने इसे नये-नये नाम से पुकारा. उन्होंने अपने नामकरण के पीछे निहित तथ्यों को भी बताया. जो इस प्रकार है-

१.     आचार्य रामचंद्र शुक्ल – रीतिकाल
२.     आचार्य मिश्र बन्धु – अलंकृत काल
३.     आचार्य विश्वनाथ प्रसाद – अलंकृत काल
४.     डॉ. रसाल – कला काल

रीतिकाल का नामकरण

रीतिकाल का नामकरण

हिन्दी साहित्य का उत्तर मध्यकाल नामकरण की दृष्टि से पर्याप्त विवादों में घिरा रहता है. इसमें सामान्यत: श्रृंगारपरक लक्षण-ग्रंथों की रचना हुई है. जार्ज ग्रियर्सन, मिश्रबंधु, रामचंद्र शुक्ल आदि से लेकर अब तक के साहित्यिक इतिहासकारों नें ‘रीतिकाल’ नाम के विषय में अनेक मत प्रकट किए हैं. जार्ज ग्रियर्सन ने इसे ‘कला काल’ कहा है, जो इस काल के कवियों की विशिष्टता को पूर्ववर्ती कवियों से अलग दिखाता है. वहीं मिश्रबंधुओं ने इसे ‘अलंकृत काल’ कहा है, जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे ‘रीतिकाल’ और पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ‘श्रृंगार काल’ संज्ञा देते हैं.
इनमें से ‘अलंकृत काल’ एवं ‘रीतिकाल’ नाम रचना-पद्धति के आधार पर दिए गए, वहीं ‘श्रृंगार काल’ उस युग की रचनाओं के आधार पर हैं. परन्तु ‘अलंकृत’ नाम अधिक समीचीन नहीं प्रतीत होता है. मिश्रबंधुओं ने इसका समर्थन दिया कि इस युग की कविता को अलंकृत करने की परिपाटी अधिक थी. यह ठीक है कि इस काल में भाव की अपेक्षा कला, विशेषत: भाषिक संरचना की ओर कवियों का अधिक रूझान था. परन्तु इस युग के कवियों ने इतर काव्यांगों पर भी लिखा है. उन्होंने अलंकारों के अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है. संस्कृत काव्यशास्त्र में ‘अलंकार’ शब्द विविध काव्यांगों का बोधक अवश्य रहा है, परन्तु ‘अलंकृत’ शब्द इस युग की कविता का ही विशेषण हो सकता है लक्षण-ग्रंथों का नहीं. इतना ही नहीं, हिन्दी में ‘अलंकार’ शब्द काव्यांग विशेष के लिए रूढ़ हो गया है.आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल को ‘श्रृंगार काल’ नाम देने का आग्रह किया है. इस युग के लिए ‘रीति’ नाम देने वाले आचार्य शुक्ल तक ने इसे ‘श्रृंगार काल’ कहे जाने की छूट दी है. यह तर्क दिया जाता है कि इस युग के कवियों की व्यापक प्रवृत्ति श्रृंगार वर्णन ही थी. यह सही है कि इस युग की अधिकांश रचनाऐं श्रृंगारिक ही है, तथापि ये आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए ही लिखी गई हैं. इनका प्रेरक-तत्त्व कवियों की काम-वासना नहीं बल्कि 'अर्थ' है, जो विलासी-आश्रयदाताओं से ऐसी रचना कर प्राप्त किया जा सकता था. इस युग में ऐसे भी कवि हैं जो इस प्रकार के वर्णन से असंतुष्ट रहे हैं.
आगे के कवि रीझिहैं तो कविताई, न तौ
राधिका कन्हाई सुमिरन कौ बहानौ हैं.
स्पष्टत: इस प्रकार के काव्य को वे काव्य कहने में भी संकोच करते थे. गोप, सेवादास, आदि कवियों द्वारा अपने लक्षण-ग्रंथों में श्रृंगार का बहिष्कार भी इसे प्रमाणित करता है कि इन कवियों की प्रवृत्ति श्रृंगारिक नहीं थी. अनेक कवियों ने अपने ग्रंथों में प्राय: यह कहा है कि इनका निर्माण वे काव्य-रचना-पद्धति का ज्ञान कराने के लिए कर रहे हैं. उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है:
भाषा भूषण ग्रंथ को जो देखे चित लाय,
विविध अर्थ साहित्य रस ताहि सकल दरसाय.
-----------------------------------------------------जसवंत सिंह
बाँचि आदि ते अंत लों, यह समुझै जौ कोई
ताहि और रस ग्रंथ को फेरि चाह नहिं होई.
(रसलीन)
---------------------------------------------------वस्तुत: इस युग के कवि काव्यांग चर्चा में वैसे ही संलग्न थे, जिस तरह भक्ति काल में बह्मज्ञान चर्चा प्रसिद्ध है. यद्यपि उस अर्थ में ये कवि आचार्य नहीं हैं जिसमें संस्कृत के काव्यशास्त्र विषयक आचार्य आते हैं. तथापि डॉ. नगेन्द्र ने “स्वच्छ और सुबोध निरूपण के कारण शिक्षक के अर्थ में आचार्य” माना है. ये कवि यदि श्रृंगार को ही अपना उद्देश्य मानते तो लक्षणों के बंधन को कदापि स्वीकार नहीं करते. शास्त्र का बंधन भावों के उच्छलन में बाधा ही उत्पन्न करता है.
बिहारी जैसे कवियों ने लक्षण-ग्रंथों के फेर में न पड़कर स्वतंत्र रूप से श्रृंगारिक रचनाएँ की हैं. किन्तु इसके मूल में बिहारी की श्रृंगारिक-प्रवृत्ति नहीं थी, बल्कि ये भी विलासी आश्रयदाताओं की ही देन कही जा सकती है.
वैसे यदि ‘श्रृंगार काल’ विशेषण मान भी लिया जाए तो इस नामकरण में अव्याप्ति दोष है. क्योंकि वीर, भक्ति, नीति आदि श्रृंगारेत्तर रसों में रचे गए तथा काव्यांग-निरूपण की दृष्टि से लिखित अनेक महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध लक्षण-ग्रंथ इसकी परिसीमा में न आ सकेंगे. अत: कहा जा सकता है कि इस युग विशेष को श्रृंगारकाल कहना युक्ति-युक्त नहीं है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में नामकरण का आधार विशिष्ट रचना-प्रवृत्ति को बनाना उपयुक्त समझा. मध्यकाल को शुक्ल जी ने पूर्वमध्यकाल और उत्तर मध्यकाल में विभक्त कर पूर्व को भक्तिकाल और उत्तर को रीतिकाल नाम दिया है. रीतिकाल से तात्पर्य उस काल से नहीं है जिसमें रीति-सम्प्रदाय की प्रवृत्ति हो, अपितु इससे तात्पर्य रीति-परम्परा के अनुसरण की प्रवृत्ति से है. परम्परा के अर्थ में ‘रीति’ शब्द का प्रयोग स्वयं इस कालखण्ड के कवियों ने किया है. “कवित्त की रीति सिखी सुकविन सों” स्वीकारने वाले कवियों ने यत्र-तत्र 'रसरीति', 'कवित्त रीति', 'कविरीति' आदि की चर्चा की है. यह रीति शब्द इस कवियों को रस, अलंकार, छंद आदि सभी काव्यांग-बोधक इकाई के रूप में अभिप्रेत है.
इतना ही नहीं रीति-निरूपण की प्रवृत्ति अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि और परम्परा के साथ आई थी. भक्तिकाल में ही काव्यशास्त्र चर्चा का विषय बन चुका था. नन्ददास द्वारा ‘रसमंजरी’ जैसा नायिका-भेद संबंधी ग्रंथ लिखा जाना तथा तुलसी द्वारा “धुनि अवरेब कवित गुन जाती मीन मनोहर ते बहु भांति” आदि कहा जाना इसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त है. इसके साथ ही रहीम, सुन्दर, केशव, आदि कवियों ने इस विषय को आगे बढ़ाया जो आगे चलकर साधारण कवियों के लिए आमफहम हो गया. इस नाम को स्वीकार लेने से सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी सीमा में श्रृंगारिक रचनाऐं, लक्षण-ग्रंथों से लेकर अन्य काव्यांग-विवेचन संबंधी ग्रंथ भी आ जाते हैं.
यद्यपि रीतिकाल संज्ञा भी अपने आप में व्यापक नहीं है, क्योंकि घनानन्द, बोधा, ठाकुर, आलम, सूदन आदि कवि इसके अंतर्गत नहीं आ पाते. इन्होंने अपनी रचनाओं में न तो काव्यांग-निरूपण किया है और न ही बिहारी की तरह इन पर काव्यशास्त्र का प्रभाव ही रहा. लेकिन जिस प्रकार सूदन, जोधराज जैसे वीर कवि वीरगाथा काल में नहीं रखे जा सकते, वैसे घनानन्द जैसे ही कवि स्वच्छंदतावाद के खाते में नहीं डाले जा सकते हैं. इसी प्रकार वृंद जैसे कवियों की रचनाएँ भक्तिकाल में नहीं रखी जा सकती. पुरानी परम्परा के ग्रंथ तो प्रत्येक युग में मिल ही जाते हैं.
घनानन्द, आलम आदि उत्कृष्ट कोटि के कवियों की प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही विद्वान इतिहासकारों ने ‘रीतिमुक्त’ संज्ञा का प्रयोग किया है. यदि इनकी रचनाओं को श्रृंगार कहते हुए फुटकल कोटि में डालते हुए, इस काल को ‘श्रृंगार काल’ कहा जाए तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि इनकी रचनाएँ संस्कृत काव्यशास्त्र की दृष्टि से श्रृंगारिक नहीं है अपितु ये फ़ारसी की प्रेमाभिव्यक्ति की पद्धति का भारतीय रूप है. अत: इसे न ‘श्रृंगारकाल’ की परिधि में लिया जा सकता है और न ‘रीतिकाल’ में ही. इनका अपना एक अलग वर्ग था. और चूँकि इनकी काव्य-पद्धति प्रचलित न हो सकी, इसलिए अलग से इस काल का नामकरण करना उचित नहीं जान पड़ता.
वस्तुत: रीतिकाल के आचार्य, कवि और टीकाकारों ने रीति शब्द को परम्परा के अर्थ में लिखा था, “रीतिरात्मा काव्यस्य” के अर्थ में नहीं. अत: रीतिकाल का अर्थ है वह काल जिसमें काव्यशास्त्र की परम्परा में बँधकर या प्रभावित होकर काव्य लिखा गया. रीतिकालीन साहित्य का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि रीतिकाल में सभी कवियों की प्रवृत्ति या तो आचार्य बनने की रही या राजसभा में सम्मान पाने की. रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध दोनों प्रकार के कवियों में यह प्रवृत्ति समान रूप से पायी जाती है. स्वच्छंद कहे जाने वाले कवियों में परम्परा से मुक्ति नहीं है लेकिन वे रीतिबद्ध कवियों की भाँति भी नहीं हैं. अत: उन्हें रीतिमुक्त संज्ञा से अभिहित किया गया है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस काल का नाम रीतिकाल की अधिक सार्थक एवं सटीक है.

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

राजी सेठ


राजी सेठ

राजी सेठ

परिचय

जन्म : 1935, नौशेहरा छावनी (पाकिस्तान)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी
मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : तत-सम, निष्‍कवच
कहानी संग्रह : अंधे मोड़ से आगे, तीसरी हथेली, यात्रा-मुक्त, दूसर देश काल में, यह कहानी नहीं, सदियों से, किसका इतिहास, गमें-हयात ने मारा, खाली लिफाफा, मार्था का देश, यहीं तक
सम्मान

अनंत गोपाल शेवडे हिंदी कथा पुरस्‍कार, हिंदी अकादमी सम्मान, भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार, वाग्मणि सम्मान, कथा साहित्‍य रचना पुरस्‍कार, हिंदी निदेशालय द्वारा हिंदीतरभाषी लेखकीय पुरस्‍कार, हिंदी प्रतिनिधि सम्‍मान, संसद साहित्‍य परिषद सम्‍मान, अक्षरम साहित्‍य सम्‍मान, टैगोर लिटरेचर अवार्ड
संपर्क

मेहरुन्निसा परवेज


मेहरुन्निसा परवेज

मेहरुन्निसा परवेज

परिचय

जन्म : 10 दिसम्बर 1944, बहेला, बालाघाट (मध्य प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी
मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : आंखों की दहलीज, कोरजा, अकेला पलाश
कहानी संग्रह : आदम और हव्वा, टहनियों पर धूप, गलत पुरुष, फाल्गुनी, अंतिम पढ़ाई, सोने का बेसर, अयोध्या से वापसी, एक और सैलाब, कोई नहीं, कानी बाट, ढहता कुतुबमीनार, रिश्ते, अम्मा, समर
सम्मान

साहित्य भूषण सम्मान, महाराजा वीरसिंह जूदेव पुरस्कार, सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार

मृणाल पांडे


मृणाल पांडे

मृणाल पांडे

परिचय

जन्म : 1946
भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी, आलेख
मुख्य कृतियाँ

कहानी संग्रह : यानी कि एक बात थी, बचुली चौकीदारिन की कढ़ी, एक स्त्री का विदागीत, चार दिन की जवानी तेरी
उपन्यास : अपनी गवाही, हमका दियो परदेस, रास्तों पर भटकते हुए

मृदुला गर्ग


मृदुला गर्ग

मृदुला गर्ग

परिचय

जन्म : 25 अक्तूबर 1938, कोलकाता
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कहानी, उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, निबंध, यात्रा वृत्तांत
मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : उसके हिस्से की धूप, वंशज, चित्तकोबरा, अनित्य, मैं और मैं, कठगुलाब, मिलजुल मन कहानी संग्रह : कितनी क़ैदें, टुकड़ा-टुकड़ा आदमी, डैफ़ोडिल जल रहे हैं, ग्लेशियर से, उर्फ सैम, शहर के नाम, समागम, मेरे देश की मिट्टी अहा, संगति-विसंगति (दो खंडों में 2003 तक की संपूर्ण कहानियाँ), मीरा नाची (स्त्री मन की कहानियाँ), जूते का जोड़ गोभी का तोड़, मृदुला गर्ग की संकलित कहानियाँ
निबंध : रंग ढंग, चुकते नहीं सवाल
व्यंग्य : कर लेंगे सब हज़म, खेद नहीं है
यात्रा वृत्तांत : कुछ अटके कुछ भटके
नाटक : एक और अजनबी, जादू का कालीन, कितनी कैदे
सम्मान

साहित्यकार सम्मान, साहित्य भूषण, महाराज वीरसिंह सम्‍मान, सेठ गोविंद दास सम्मान, व्यास सम्मान, स्पंदन कथा शिखर सम्मान, हैलमन-हैमट ग्रांट

कृष्णा सोबती


कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती

परिचय


जन्म : 18 फरवरी 1925
भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी

मुख्य कृतियाँ

उपन्यास :  डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार तिन पहाड़, सूरजमुखी अंधेरे के, सोबती एक सोहबत, जिंदगीनामा, ऐ लड़की, समय सरगम, जैनी मेहरबान सिंह
कहानी संग्रह : बादलों के घेरे
सम्मान

साहित्‍य अकादमी सम्मान, साहित्य शिरोमणि सम्मान, शलाका सम्मान, मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार, साहित्य कला परिषद पुरस्कार, कथा चूड़ामणि पुरस्कार, महत्‍तर सदस्य, साहित्य अकादमी

अर्चना वर्मा



अर्चना वर्मा

अर्चना वर्मा

परिचय

जन्म : 6 अप्रैल 1946, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कविता, कहानी, आलोचना
मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : कुछ दूर तक, लौटा है विजेता
कहानी संग्रह : स्थगित, राजपाट तथा अन्य कहानियाँ
आलोचना : निराला के सृजन सीमांत : विहग और मीन, अस्मिता विमर्श का स्त्री-स्वर
संपादन : ‘हंस’ में 1986 से लेकर 2008 तक संपादन सहयोग, ‘कथादेश’ के साथ संपादन सहयोग 2008 से, औरत : उत्तरकथा, अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य, देहरि भई बिदेस

अमृता प्रीतम


अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम

परिचय

जन्म : 31 अगस्त, 1919 गुजरांवाला (पंजाब)
भाषा : पंजाबी
विधाएँ : कविता, उपन्यास, कहानी
मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : डॉक्टर देव, पिंजर, आह्लणा, आशू, इक सिनोही, बुलावा, बंद दरवाज़ा, रंग दा पत्ता, इक सी अनीता, चक्क नम्बर छत्ती, धरती सागर ते सीपियाँ, दिल्ली दियाँ गलियाँ, एकते एरियल, जलावतन, यात्री, जेबकतरे, अग दा बूटा, पक्की हवेली, अग दी लकीर, कच्ची सड़क, कोई नहीं जानदाँ, उनहाँ दी कहानी, इह सच है, दूसरी मंज़िल, तेहरवाँ सूरज, उनींजा दिन, कोरे कागज़, हरदत्त दा ज़िंदगीनामा
आत्मकथा : रसीदी टिकट
कहानी संग्रह : हीरे दी कनी, लातियाँ दी छोकरी, पंज वरा लंबी सड़क, इक शहर दी मौत, तीसरी औरत
कविता संग्रह : लोक पीड़, मैं जमा तू, लामियाँ वतन, कस्तूरी, सुनहुड़े, कागज ते कैनवस
गद्य कृतियाँ : किरमिची लकीरें, काला गुलाब, अग दियाँ लकीराँ, इकी पत्तियाँ दा गुलाब, सफ़रनामा, औरत : इक दृष्टिकोण, इक उदास किताब, अपने-अपने चार वरे, केड़ी ज़िंदगी केड़ा साहित्य, कच्चे अखर, इक हथ मेहन्दी इक हथ छल्ला, मुहब्बतनामा, मेरे काल मुकट समकाली, शौक़ सुरेही, कड़ी धुप्प दा सफ़र, अज्ज दे काफ़िर
सम्मान

 ज्ञानपीठ पुरस्कार
निधन

अलका सरावगी


अलका सरावगी

अलका सरावगी

परिचय

जन्म : 17 नवंबर 1960, कोलकाता
भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी
मुख्य कृतियाँ

उपन्यास- कलि-कथा वाया बाइपास, शेष कादंबरी, कोई बात नहीं, एक ब्रेक के बाद
कहानी-संग्रह- कहानी की तलाश में, दूसरी कहानी
सम्मान

साहित्य अकादमी पुरस्कार (2001), श्रीकांत वर्मा पुरस्कार (1998), बिहारी पुरस्कार (2006)

उषा प्रियंवदा


उषा प्रियंवदा

उषा प्रियंवदा

परिचय

जन्म : 24 दिसंबर, 1930, कानपुर (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी
मुख्य कृतियाँ

उपन्यास : पचपन खम्भे लाल दीवारें, रुकोगी नहीं राधिका, शेष यात्रा, अंतर-वंशी, भया कबीर उदास
कहानी संग्रह : कितना बड़ा झूठ, एक कोई दूसरा, सम्पूर्ण कहानियां
सम्मान

पद्मभूषण, डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार

उषा राजे सक्‍सेना


उषा राजे सक्‍सेना



परिचय

जन्म : 22 नवंबर 1943, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
भाषा : हिंदी, अंग्रेजी
विधाएँ : कविता, कहानी
मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : विश्वास की रजत सीपियाँ,  इंद्रधनुष की तलाश में, क्या फिर वही होगा...
कहानी संग्रह : प्रवास में, वॉकिंग पार्टनर, वह रात और अन्य कहानियाँ
अन्य : ब्रिटेन में हिंदी, दीपक द बास्केटमैन श्रृंखला की चार पुस्तकें (अंग्रेजी में)
संपादन : मिट्टी की सुगंध (प्रवासी हिंदी कथाकारों की कहानियों का संग्रह)
सम्मान

पद्मानंद साहित्य सम्मान, ‘विदेशों में हिंदी साहित्य सेवा,  प्रसार-प्रचार सम्मान’ (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान), ‘बाबू गुलाबराय स्मृति साहित्य सेवा सम्मान’ (बाबू गुलाबराय स्मृति संस्थान - आगरा), विमल गोयल स्मृति पुरस्कार, डॉ. हरिवंशराय बच्चन यू.के. हिंदी लेखन सम्मान (भारतीय उच्चायोग - यू.के)
संपर्क

गीतांजलि श्री


गीतांजलि श्री

गीतांजलि श्री

परिचय

जन्म : 12 जून 1957
भाषा : हिंदी, अंग्रेजी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी, जीवनी
मुख्य कृतियाँ

उपन्यास :  माई, हमारा शहर उस बरस, तिरोहित, खाली जगह
कहानी संग्रह : वैराग्य, अनुगूँज, मार्च माँ और साकुरा, यहाँ हाथी रहते थे, प्रतिनिधि कहानियाँ
जीवनी : बिट्वीन टू वर्ल्ड्स : ऍन इंटेलेक्चुअल बायोग्राफी ऑव प्रेमचंद
सम्मान

इंदु शर्मा कथा सम्मान, संस्कृति मंत्रालय की सीनियर फेलोशिप, जापान फाउंडेशन की फेलोशिप, साहित्यकार सम्मान, स्कॉटलैंड और फ्रांस में राइटर्स रेजिडेंसी, द्विजदेव सम्मान
संपर्क

हिन्दी साहित्य का इतिहास

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