हिन्दी कहानी का इतिहास
पिछले वर्षों में हिन्दी कहानी का विकास जितनी गति के साथ हुआ उतनी गति किसी अन्य साहित्यिक विधा के विकास में नहीं देखी जाती। कहानी युगानुरूप अनेक मोड़ लेती हुई अपेक्षित मंज़िलों को पार करती हुई आज इस बिंदु पर दिखाई पड़ रही है जो अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। आज के जीवन की धड़कन की पहचान मुख्यत: कहानी और कविता के माध्यम से की जा सकती है। हिन्दी कहानी के समारम्भ के विषय में कुछ विवादास्पद बातें उठ खड़ी होती हैं।
पहली कहानी कौन
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किशोरीलाल गोस्वामी लिखित 'इंदुमती' (1900 ई॰) को हिन्दी की पहली कहानी माना है। इसके संबंध में सामान्यत: दो आपत्तियाँ उठाई गई हैं – एक यह कि हो न हो यह किसी बंगला कहानी का अनुवाद हो औऱ दूसरी यह कि इस पर टेम्पेस्ट की छाया है। काल-क्रम की द्रष्टि से आचार्य शुक्ल लिखित 'ग्यारह वर्ष का समय' (1903 ई॰) दूसरी कहानी ठहरती है। पर इनके पहले भी कहानियाँ लिखी गई थीं। उनकी ओर संयोगवश किसी का ध्यान नहीं गया। ७० के दशक में 'सारिका' में हिन्दी की पहली कहानी के संबंध में टिप्पणियाँ-लेख प्रकाशित हुए। श्री वर्मा ने माधवप्रसाद सप्रे की 'टोकरी भर मिट्टी' (1907 ई॰) को हिन्दी की पहली कहानी सिद्ध करने का प्रयास किया है। किशोरीलाल गोस्वामी की ही लिखी कहानी 'प्रणयनी' परिणय हिन्दी की पहली मौलिक कहानी है। यह सन 1897 ई॰ में लिखी गई थी। इसमे दो प्रेमियों की कहानी कही गई है। प्रेमी प्रेमिका के घर में प्रविष्ट होने का उपक्रम कर ही रहा था कि राजा द्वारा चोर समझ कर पकड़ लिया गया। किन्तु उनके प्रगाढ़ प्रेम का परिचय पाकर राजा ने दोनों का विवाह करा दिया। इस पर कथासरित्सागर का प्रभाव है। शैली पुरानी है, समापन भी भरत वाक्य से होता है। किन्तु यदि कहानी की पहचान कथानात्मक शैली तथा एक ही केन्द्रीय भावना के आधार पर की जायेगी तो यह निश्चिय ही हिन्दी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी ठहरेगी।
विकास का पहला दौर
वस्तुत: सन 1900 ई॰ से 1915 ई॰ तक हिन्दी कहानी के विकास का पहला दौर था। मन की चंचलता (माधवप्रसाद मिश्र) 1907 ई॰ गुलबहार (किशोरीलाल गोस्वामी) 1902 ई॰, पंडित और पंडितानी (गिरिजादत्त वाजपेयी) 1903 ई॰, ग्यारह वर्ष का समय (रामचंद्र शुक्ल) 1903 ई॰, दुलाईवाली (बगमहिला) 1907 ई॰, विद्या बहार (विद्यानाथ शर्मा) 1909 ई॰, राखीबंद भाई (वृन्दावनलाल वर्मा) 1909 ई॰, ग्राम (जयशंकर 'प्रसाद') 1911 ई॰, सुखमय जीवन (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) 1911 ई॰, रसिया बालम (जयशंकर प्रसाद) 1912 ई॰, परदेसी (विश्वम्भरनाथ जिज्जा) 1912 ई॰, कानों में कंगना (राजाराधिकारमणप्रसाद सिंह)1913 ई॰, रक्षाबंधन (विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक') 1913 ई॰, उसने कहा था(चंद्रधर शर्मा गुलेरी) 1915 ई॰, आदि के प्रकाशन से सिद्ध होता है कि इस प्रारंभिक काल में हिन्दी कहानियों के विकास के सभी चिन्ह मिल जाते हैं। १९५० तक हिन्दी कहानी का एक विस्तृत दौर समाप्त हो जाता है और हिन्दी कहानी परिपक्वता के दौर में प्रवेश करती है।
दूसरा दौर
प्रेमचंद और प्रसाद
सन 1916 ई॰, प्रेमचंद की पहली कहानी सौत प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के आगमन से हिन्दी का कथा-साहित्य समाज-सापेक्ष सत्य की ओर मुड़ा। प्रेमचंद की आखिरी कहानी 'कफन' 1936 ई॰, में प्रकाशित हुई और उसी वर्ष उनका देहावसान भा हुआ। बीस वर्षों की इस अवधि में कहानी की कई प्रवृत्तियाँ उभर कर आईँ। किंतु इन प्रवृत्तियों को अलग अलग न देखकर यदि समग्रत: देखा जाय तो इस समूचे काल को आदर्श और यथार्थ के द्वन्द्व के रूप में लिया जा सकता है। इस कालावधि में 'प्रसाद' और प्रेमचंद कहानियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रसाद मुख्यत रोमैंटिक कहानीकार हैं। किंतु उनके अंतिम कहानी संग्रह 'इंद्रजाल' (1936 ई॰) में संग्रहीत इन्द्रजाल, गुंडा, सलीम, विरामचिन्ह से उनकी यथार्थोंमुखी प्रवृत्ति को पहचाना जा सकता है। पर रोमैंटिक होने के कारण वे आदर्शवादी थे। प्रेमचंद ने अपने को आदर्शोंमुखी यथार्थवादी कहा है। वस्तुत: वे भी आदर्शवादी थे। किंतु अपने विकास के अंतिम काल में वे यथार्थ की कटुता को भोगकर यथार्थवादी हो गए। 'पूस की रात' और 'कफन' इसके प्रमाण हैं। सन '33 में निराला का एक संग्रह 'लिली' प्रकाशित हो चुका था। उसकी कहानियाँ बहुत कुछ यथार्थवादी ही हैं।
प्रसाद का रोमैंटिक आदर्श उनकी प्रारम्भिक कहानियों में भी दिखाई देता है। पर चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानी 'उसने कहा था' (1915 ई॰) में यह अपनी पूरी रंगीनी में मिलता है। प्रसाद की महत्त्वपूर्ण रोमैंटिक कहानियाँ 'उसने कहा था' के बाद लिखी गईं। 'उसने कहा था' अपने परिपार्श्व (सेटिंग), चरित्र-कल्पना, परिणति में रोमैंटिक है। प्रेमजन्य त्याग, बलिदान – यहाँ तक कि मृत्यु का वरण सभी कुछ रोमैंटिक आदर्श की परिपूर्ति करते हैं। आठ वर्ष की लड़की और बारह वर्ष के लड़के में जिस प्रेम का उदय होता है वह पच्चीस वर्षों के अन्तराल के बाद भी इस तरह उभर आता है कि उस रोमैंटिक प्रेम के निमित्त लहना सिंह प्राण दे देता है। इस आदर्श की रक्षा के लिए वास्तविकता को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। इस कहानी की तकनीकी उपलब्धियाँ अभूतपूर्व हैं। नाटकीयता, स्थानिक रंग, रंगीन सेटिंग, जीवंत वर्णन, फ्लैश बैक, स्वप्न आदि को कहानी में समाविष्ट करने का पहला श्रेय उन्हीं को है। प्रसाद ने अपनी कहानियों में गुलेरजी की कतिपय तकनीकी विशेषताओं को ग्रहण किया हा पर वे मूलत प्रगीतात्मक (लीरिकल) हैं। प्रगीतों में कथा तत्त्व कम, भाव अधिक होता है। वे छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं। अतीत के शौर्यमूलक चित्रों, प्रभावशाली प्राकृतिक वातावरणों, प्रेमगत अन्तर्द्वन्दों में उनका मन अधिक रमा है। प्रेम और सौन्दर्य के चित्रण में उन्होंने सर्वाधिक मनोयोग से काम लिया है। एक दूसरी विशेषता, जो प्राय: अलक्षित रह जाती है, यह है कि उन्होंने कहानी के पात्रों को व्यक्तित्व दिया। व्यक्तिनिष्ठता छायावादी काव्य की विशेषता रही है। नाटकों के पात्रों को भी उन्होंने सर्वप्रथम व्यक्तित्व दिया। वही बात कहानी को संबंध में भी कही जा सकती है। 'गुण्डा' के बाबू नन्हूक सिंह जैसे व्यक्ति चरित्र की सृष्टि अद्वितीयता में अकेली है। इस प्रकार मधूलिका, चम्पा, सालवती आदि भी अविस्मरणीय हैं। राष्ट्रीय चेतना छायावादी काव्य के एक वैशिष्टय है। इसे 'पुरस्कार' जैसी कहानियों में देखा जा सकता है। मन का गहन अन्तर्द्वन्द्व तो इनकी कहानी का मूलाधार है। 'आकाशदीप' इसका जीवंत उदाहरण है। प्रगीतात्मकता के सभी तत्त्व – अत्यधिक धनत्वपूर्ण वेदना, एकतानता आदि के लिए विसाती द्रष्टव्य हैं।
एक अलग द्रष्टिकोण अपनाने के कारण उनकी कहानियाँ प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हो जाती हैं। इसलियो आलोचकों ने प्रसाद संस्थान की कहानियों को प्रेमचंद-संस्थान की कहानियों से पृथक माना है। दृष्टिकोण का अलगाव संरचना का अलगाव होता है। उनके कथानक में घटनाएँ कम और स्थितियों (सिचुएशन्स) के प्रति प्रतिक्रियाएँ अधिक हैं। फलस्वरूप उनमें नाटकीयता का प्राधान्य हो गया है। उनके चरित्र भी स्थितियों से गुजर कर अपने क्रिया-कलापों द्वारा अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित करते हैं। प्राकृतिक सेटिंग जहाँ कहीं भी ले आई गई है वह संपूर्ण कहानी का अनिवार्य अंग बन गई है। छायावादी काव्य की तरह उस पर भी मानवीय चेतना की आरोप दिखाई देता है। अनुभूति और कल्पना का इतना एकतान संयोग अन्यत्र नहीं मिलेगा। प्रेमचंद ने कहानियों को व्यष्टि-जीवन से समष्टि-जीवन की ओर मोड़ा। प्रसाद की कहानियों छायावादी काव्य-चेतना के इतने समीप है कि वे स्वयं प्रगीतात्मक हो गई हैं। उनमें मिश्रित भावों के द्वंद्व मुख्यत: काव्यात्मक और व्यक्तिमूलक हैं, इसलिए सामान्य जीवन का प्रवाह वहाँ नहीं मिलेगा। प्रेमचंद ने कहानियों पर लदी हुई आलंकारिता को अनलंकृत कर उन्हें सहज बनाया।
यों प्रेमचंद की आरंभिक कहानियों में एक दूसरा अलगाव दिखाई पड़ता है। इसे सामान्यत: आदर्शवाद के नाम से पुकारा जाता है। पर उसे सुधारवाद कहना चाहिए। बड़े घर की बेटी का बड़प्पन, बाल-विवाह का विरोध, विधवा-विवाह का समर्थन सुधारवाद के अंतर्गत ही आता है। पर क्रमश: उनमें परिवर्तन आया और उन्होंने यथार्थ भारतीय जीवन को आँकने का पूरा प्रयास किया। इस देश के मध्यवर्गीय समाज को इतने वैविध्य के साथ कहानियों में चित्रित करने का प्रयत्न किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं किया। संख्या में भी उन्होंने काफी कहानियाँ लिखी हैं – दो सौ चौबीस। कुछ ही कहानियाँ लिखने के बाद प्राय: कहानीकार अपने को दुहराने लगते हैं किन्तु प्रेमचंद ने अपने को दुहराया नहीं है। यह उनकी दृष्टि-व्याप्ति का सूचक है। घरेलू जीवन की समस्याओं तथा सामाजिक जीवन की विडम्बनाओं को जिस ढंग से उन्होंने चित्रित किया है वे बहुत जटिल तो नहीं पर तात्कालीन परिवारों और संस्थाओं को उजागर करने में पूर्णत: समर्थ हैं। उनकी आदर्शोन्मुख और अनसंकृत कथा-शैली भारतीय कथा-आख्यायिका के मेल में अधिक है।
पर बाद में चलकर प्रेमचंद ने अनुभव किया कि उनके आदर्श जीवन में फलीभूत नहीं हुए। इसलिये कल्पनात्मक आदर्श का पल्ला छोड़कर वे यथार्थ जीवन की कटुताओं का चित्रण करने लगे। 'पूस की रात' और 'कफन' में उनके बदले हुए दृष्टिकोण तथा नई संरचना को देखा जा सकता है। इन दोनों कहानियों को विशेष रूप से अंतिम कहानी को पूर्णत: आधुनिक कहा जा सकता है। ये कहानियाँ किसी आदर्श की खूँटी पर नहीं टँगी हैं। इनमें आलोचक यह नहीं बता सकता कि कहानी का संप्रेश्य कोई खास वस्तु है। वे अपना संप्रेश्य स्वयं हैं-आदि से अन्त तक। कोई परिणति नहीं है कोई चरमोत्कर्ष नहीं है। केवल सांकेतिकता है, पाठकों की काल्पना को उड़ान भरने की छूट है। आज की आलोचना में जिस भाषिक सर्जना की चर्चा की जाती है उसे इनमें पूरी ऊँचाई पर देखा जा सकता है। दोनों ही कहानियाँ अन्वेषण की प्रक्रिया का सुन्दर नमूना हैं। आश्चर्य तो यह देख कर होता है कि आज की जिंदगी में जिस विदूषकत्व का प्रवेश देखा जा रहा है उसके तेवर 'कफ़न' में मौजूद हैं। किन्तु इस विदूषकत्व को (जो तथाकथित आलोचकों की दृष्टि में विकृति है) उन्होंनें रचनात्मक संदर्भ में रखा है जो समूचे समाज को नंगा करते हुए एक अर्थपूर्ण मूल्यदृष्टि को संकेतिक करता है। एक ऐतिहासिक संगति के फलस्वरूप कफ़न में आधुनिक जीवन का अकेलापन और डीह्यूमनाइज़ेशन सदृश्य में ही समाविष्ट हो गया है। यह हिन्दी की पहली आधुनिकता बोध की कहानी है। प्रसाद और प्रेमचंद संस्थान के जो लेखक हुए उनमें विकास का कोई क्रम लक्षित नहीं होता है। उनकी कहानियों में अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की झलक प्राय नहीं मिलती। रायकृष्णदास प्रसाद-संस्थान के लेखक हैं। चंडीप्रसाद हृदयेश में प्रसाद की काव्यात्मकता नहीं है, उनकी अलंकृति मात्र है। प्रेमचंद संस्थान के लेखकों में सुदर्शन, विश्वम्भरनाथ कौशिक, राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि की गणना की जाती है।
उग्र और जैनेन्द्र
सन 1922 ई॰ में उग्र का हिन्दी-कथा-साहित्य में प्रवेश होता है। उग्र न तो प्रसाद की तरह रोमैंटिक थे और न ही प्रेमचंद की भाँति आदर्शोन्मुख यथार्थवादी। वे केवल यथार्थवादी थे – प्रकृति से ही उन्होंने समाज के नंगे यथार्थ को सशक्त भाषा-शैली में उजागर किया। समाज की गंदगी को अनावृत करने के कारण तथाकथित शुद्धतावादी आलोचकों ने उनकी तीखी आलोचना की। उनके साहित्य को घासलेटी साहित्य कहा गया। उन्होंने सामाजिक कुरूपताओं पर तीखा प्रहार किया। दोजख की आग, चिन्गारियाँ, बलात्कार, सनकी अमीर, चाकलेट, इन्द्रधनुष आदि उनकी सुप्रसिद्ध कहानियाँ हैं। इन कहानियों को अमर्यादित और विघातक बताया गया है। लेकिन यदि उनकी बहुत सी कहानियाँ अमर्यादित हैं तो आज के लेखकों की अनेक कहानियों के संबंध में भी यही कहना होगा। उग्र की कहानियों के लिये एक प्रतिमान तथा आज की वैसी ही कहानियों के लिये दूसरा प्रतिमान नहीं लागू किया जा सकता। आज के संदर्भ में उग्र की कहानियों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। चतुरसेन शास्त्री, ऋषभचरण जैन आदि पर उग्र का प्रभाव देखा जा सकता है।
27-28 ई॰ में जैनेन्द्र ने कहानी लिखना आरंभ किया। उनकी पहली कहानी खेल (सन 1927 ई) विशाल भारत में प्रकाशित हुई थी। फाँसी (1928 ई॰) वातायन (1930 ई॰) नीलम देश की राजकन्या (1933 ई॰), एक रात (1934 ई॰), दो चिड़ियाँ (1934 ई॰), पाजेब (1942 ई॰), जयसंधि (1947 ई॰) आदि उनके कहानी संग्रह हैं। उनके आगमन के साथ ही हिन्दी-कहानी का नया उत्थान शुरू होता है।
नए उत्थान का मतलब मनोवैज्ञानिक कहानियाँ कहने से स्पष्ट नहीं होता। उन्हें हिन्दी का शरद्चंद्र कह कर भी लोग भ्रांति की सृष्टि करते हैं। जैनेंद्र में शरद्चंद्र की रुआँसी भावुकता नहीं है। जैनेन्द्र की कहानियों में एक विशिष्ट प्रकार के जीवन-दर्शन की खोज है। प्रसाद की कहानियों में भी मन का गहरा द्वंद्व चित्रित हुआ है। पर इस द्वंद्व के आयाम सीमित हैं। जैनेन्द्र मन की परतें उघाड़ते हैं और उसके माध्यम से सत्यान्वेषण का प्रयास करते हैं। कहानियों के माध्यम से सत्यान्वेषण का यह प्रयास पहली बार जैनेन्द्र की कहानियों में दिखाई पड़ता है। जैनेन्द्र का कहना है – कहानी तो एक भूख है जो निरंतर समाधान पाने की कोशिश करती है। हमारे अपने सवाल होते हैं, शंकाएँ होती हैं, चिंताएँ होती हैं और हम उनका उत्तर, उनका समाधान खोजने का सतत् प्रयत्न करते रहते हैं। हमारे प्रयोग होते रहते हैं....। इस अन्वेषण की प्रक्रिया गाँधीवादी अहिंसा और फ्रायडवादी अचेतन मन के व्यापार से संबंध है। इसलिये जगह जगह नैतिक मानों का प्रश्न उठता है। पर जैनेन्द्र में एक प्रकार के रहस्य और गुह्यता के भी दर्शन होते हैं। यह उनकी विशेषता और कमजोरी दोनों हैं। आगे चलकर जहाँ उनका दर्शन शिथिल और अन्वेषणहीन हो गया है बहाँ उसका तेवर अधिक स्थूल औऱ चटकीला है। परवर्ती कहानियों की मुद्राएँ इसी तरह की हैं। उनकी कहानियों की संरचना व्यक्ति के बिंदु से शुरु होती है। अवचेतन मन की कुछ गुत्थियाँ उछाल दी जाती हैं। वे कभी अपनी ही किसी दूसरी प्रवृत्ति अथवा बाह्य नैतिकता से टकराती हैं। यह टकराहट आत्मपीड़ा और अहं के विलगन में परिणत होकर कहानी बन जाती है। उनमें प्राय तार्किक अन्विति का अभाव मिलता है और उसकी पूर्ति वे तर्कातीत रहस्य से करते हैं। आगे कुछ दिनों तक प्रेमचंद और जैनेन्द्र की परंपराओं का विकास ही हिन्दी – कहानी का विकास माना गया है।
यशपाल
यशपाल मूलत प्रेमचंद की परम्परा के कहानीकार हैं। '36 ई॰ में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हो चुकी थी। इस समय के लेखकों की रचनाओं में प्रगतिशीलता के तत्त्व का जो समावेश हुआ उसे युगधर्म समझना चाहिए। यशपाल राष्ट्रीय संग्राम के एक सक्रिय क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे। इसलिये साहित्य के वे साधन समझते थे, साध्य नहीं। स्पष्ट है कि उनकी कहानियाँ किसी न किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये लिखी गई हैं। प्रेमचंद धन के दुश्मन थे तो यशपाल धनी के। धनी वर्ग हमारे समाज के कोढ़ हैं। सारी सांस्कृतिक – नैतिक असंगतियों के मूल में धन की विषमता ही क्रियाशील है। मार्क्स के साथ ही इन पर फ्रायड का भी गहरा प्रभाव है। फलत यौन-चेतना के खुले चित्र भी इनके कहानी उपन्यासों में मिलेंगे। इनके दर्जनों कहनी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं - पिंजड़े की उड़ान, वो दुनिया, ज्ञानदान, अभिशप्त, तर्क का तूफान, भस्मावृत चिन्गारी, फूलों का कुर्ता, उत्तमी की माँ आदि। यशपाल की कहानियों को दृष्टांत के रूप में ग्रहण करते हैं। इसलिए उनकी कहानियाँ बहुत कुछ नियोजित (कांट्राइव्ड) होती हैं। इस नियोजन का मुख्य आधार कल्पना है – अनुभूति नहीं। प्रेमचंद की रचना-प्रक्रिया से इनकी रचना-प्रक्रिया काफी मिलती-जुलती है। प्रेमचंद की कहानियों में (कुछ को छोड़कर) पहले कोई स्थिर विचार आता है और बाद में उसके अनुसार कहानी के पात्र, स्थितियाँ घटनाएँ आदि को अन्वेषित कर लिया जाता है। यशपाल की प्रक्रिया इससे भिन्न नहीं है। प्रेमचंद में सुधारवाद की प्रमुखता है तो यशपाल में मार्क्सवाद और फ्रायडवाद की। वे विचारों के कहानीकार हैं, चिन्तन के नहीं। सामाजिक विशेषताओं और मध्यवर्गीय समाज के खोखलेपन पर गहरा व्यंग करने में ये बेजोड़ हैं। यशपाल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कथा का रस उनमें सर्वत्र मिलता है।
अज्ञेय
अज्ञेय प्रयोगधर्मा कलाकार हैं। उनके आगमन के साथ कहानी नई दिशा की ओर मुड़ी। जिस आधुनिकता बोध की आज बहुत चर्चा की जाती है उसके प्रथम पुरस्कर्ता अज्ञेय ही ठहरते हैं- काव्य में भी, कथा-साहित्य में भी। प्रयोगधर्मा होने के साथ साथ वे अपने अभिजातीय संस्कारों के कारण सचेत भी हैं। उनकी आरंभिक कहानियों में रोमानी विद्रोह दिखाई पड़ता है। लेकिन क्रमश वे रोमांस से हटते गये। अहं के विसर्जन का उल्लेख वे बार बार करते हैं, यह रोमांस से अलग होने का प्रयत्न ही है। उनकी श्रेष्ठ कहानियों में उनके अहं ने दखल नहीं दिया है। इसलिये वे अपनी संश्लिष्टता में अपूर्व बन पड़ी है। विपगाथा (1937 ई॰), परंपरा (1944 ई॰), कोठरी की बात (1945 ई॰), शरणार्थी (1947 ई॰), जयदोल (1951 ई॰) और ये तेरे प्रतिरूप उनके कहानी संग्रह हैं। पहले दोनों संग्रहों की कहानियों में अहं का विस्फोट और रोमानी विद्रोह है। शरणार्थी की कहानियाँ बौद्धिक सहानुभूति से प्रेरित होने के कारण रचनात्मक नहीं बन पड़ी हैं। पर जयदोल संग्रह की कहानियाँ अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में अहं पूर्णत विसर्जित है। अपने से हट कर उसकी दृष्टि में समग्रता और रचना में संश्लिष्टता आ गई है। उदाहरणार्थ उनकी दो कहानियों को (गैंग्रीन-रोज और पठार का धीरज) देखा जा सकता है। 'गैंग्रीन' में मध्यवर्ग की एकरसता (बोर्डम) को समग्रत लिया गया है। यह एकरसता उसके संरचनात्मक स्तर पर चित्रित मिलेगी। उसे परिणति या निचोड़ के रूप में नहीं पाया जा सकता है - उसे पाने के लिये कहानी को समग्रत ही लेना होगा। 'गैंग्रीन' मध्यवर्गीय जीवन की एकरसता का जबरदस्त प्रतीक है। पर इसे परिवेश, फ्लैश बैक, बिंब, प्रतीक के माध्यम से रचा गया है। न फालतू शब्द और न ही प्रारंभिक कहानियों की तरह विशेषणों की भरमार। घरेलू वातावरण, तीन का गजर, घंटे का टन-टन, पाइप का टप-टप आदि सभी कुछ एकरस परिवेश की रचना करते हैं। 'पठार का धीरज' भी अपनी रचनात्मक संश्लिष्टता और आधुनिकता बोध के कारण महत्त्वपूर्ण बन पड़ी है। दो युगों की प्रेम-कहानियाँ जो अपना अलग अलग बोध देती हैं, एक आन्तरिक संगति में बंधकर पैरेबुल के निकट पहुँच जाती हैं।
अन्य रचनाकार
अश्क प्रेमचंद परंपरा के कहानीकार हैं। उन्होंने भी मध्यवर्गीय समाज से कथावस्तु का चयन किया है। कहानी संबंधी विविध प्रयोग उनकी रचना में मिलेंगे। पर प्रयोगधर्मी रचनाओं में एक प्रकार की आयासजन्य कृत्रिमता मिलती है। जीवन की गहरी अनुभूति डाची, काकड़ां का तेली जैसी कहानियों में उपलब्ध होती है। अश्क के अतिरिक्त वृंदावनलाल वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, इलाचन्द्र जोशी, अमृतलाल नागर आदि उपन्यासकारों ने भी कहानियों के क्षेत्र में काम किया है। किन्तु इनका वास्तविक क्षेत्र उपन्यास है कहानी नहीं। इसके बाद सन 50 ई॰ के आसपास से हिन्दी कहानियाँ नए दौर से गुजरने लगती हैं। इन दो दशकों में विकसित कहानियों की प्रवृति को एक नाम देना कठिन है। यदि कोई नाम दिया जा सकता है तो वह है आधुनिकता बोध की कहानियाँ। आधुनिकता यानि विज्ञान और प्रविधि की यांत्रिकता में जकड़े जटिल-जीवन-बोध की कहानियाँ।
परंपरागत हिन्दी कहानियों से अलगाने के लिए इन्हें नई नई कहानियाँ कहा जाने लगा। वस्तुत नई कहानियाँ नाम नई कविता के वज़न पर रखा गया। कुछ लोग इन कहानियों को पूर्ववर्ती पीढ़ी की कहानियों का विकास मानते हैं और कुछ परंपरा से कटकर या उसे अस्वीकार कर इसे एकदम नई कहने की हठधर्मी से बाज नहीं आते। वस्तुत इन नामों में कुछ अर्थपूर्ण नहीं है।
नई कहानी से भी अपने को अलगाने के लिए और और नाम रखे गये- सचेतन कहानी, अकहानी आदि। पर नामों पर बहस करना बेमानी है। कहानी तो कहानी है। युग परिवर्तन के साथ उसकी प्रवृत्तियाँ बदलेंगी ही। स्वतंत्रता – प्राप्ति के कुछ ही वर्षों बाद भारतीय परिवेश में प्रसन्नता – अवसाद के विरोधी स्वर सुनाई पड़ने लगे। कुछ लोग राष्ट्रीय आकांक्षाओं के पूर्त्यर्थ आशान्वित थे और कुछ लोगों का मोह-भंग हो चुका था। स्वतंत्रता की प्राप्ति एक रोमेंटिक घटना थी। ग्राम तथा उसके अंचल संबद्ध कहानियों में रोमानी यथार्थ चित्रित हुआ है। शिवप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय और फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों को इसी कोटि में रखा जा सकता है। उनकी कुछ कहानियों में जीवट भी मिलता है। किंतु इस तरह की अधिकांश कहानियाँ, जाने-समझे और आंशिक रूप से भोगे यथार्थ पर आधारित होने पर भी, पुराने मूल्यों का ही प्रतिपादन करती हैं। इन दो दशकों में देखते देखते दादा, बाबा, माई के प्रति व्यक्त की गई आस्था उलट गई और वह पुराने-नए मूल्यों के संघर्ष के रूप में चित्रित की जाने लगी। यह टकराहट नए बदलाव की सूचना देती है।
आधुनिक जीवन में कुछ ऐसा टूट गया है कि पुराने सारे संबंध बदल गए हैं। रागपूर्ण संबंध अपने तनावों में मूल्यहीन होने के साथ अर्थहीन भी हो गये हैं। मोहन राकेश ने इन तनावों को मुख्य रूप से अपनी कहानियों में व्यक्त किया है। कमलेश्वर तनावों के बीच मुल्य दृष्टि की तलाश करते हैं। निर्मल वर्मा मूलतः रोमेंटिक होते हुए भी कुछ कहानियों में आज की सामाजिक विडंबना – निरर्थक चीख – को प्रभावशाली ढंग से चित्रित करते हैं। धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय और नरेश मेहता कवि पहले हैं और कहानीकार बाद में। इनमें भारती का व्यक्तित्व सबसे अधिक निर्लेप क्षमतावान और मूल्यपरक है। उनकी कहानियों पर उनका कवि व्यक्तित्व कहीं हावी नहीं होता। यथाप्रसंग वह सहायता ही पहुँचाता है। इस संग्रह में संग्रहित ‘गुलकी बन्नो’ इसका प्रमाण है।
राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, श्रीकांत वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, राजकमल चौधरी आदि तनावों के ही कहानीकार हैं। ये तनाव, पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहन, प्रेमी-प्रेमिका सभी में दिखाई पड़ेंगे। व्यक्ति और समाज के बीच गहरी खाई पैदा हो गई है। तनावों के बीच रहने वाले व्यक्ति अपने को अकेले, अजनबी और संत्रस्त पा रहे हैं। यह इस देश के बुद्धिजीवियों की ही स्थिति नहीं है। अन्य देशों के लोग भी इल स्थिति का और भी तीखेपन के साथ अनुभव कर रहे हैं। सारा जीवन इतना जटिल और यांत्रिक हो गया है कि मनुष्य यंत्रगतिक हो चला है। उसकी अपनी पहचान (आडेंटिटी) गुम हो गई है। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई है कि उसके लियें ज़िंदगी का अर्थ है कि वह अर्थहीन है। एक और पीढ़ी। यानि ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, विजयमोहन सिंह, रवीन्द्र कालिया, महेन्द्र भल्ला आदि की कृतियाँ इनकी कहानियों में आधुनिकता का वह रूप है जो ऊब, घुटन, व्यर्थता आदि को अभिव्यक्त करता है। ये कहानीकार प्रायः त्रासद मानवीय स्थितियों से उबर नहीं पाते। इन कहानीकारों में ज्ञानरंजन की दृष्टि सर्वाधिक संतुलित, गैर रोमानी और नए उन्मेर्षों को पकड़ पाने में समर्थ है। अगले दौर के कहानीकारों की सूची लंबी है-काशीनाथ सिंह, इब्राहिम शरीफ, इजराइल, विश्वेशवर, सुधा अरोड़ा आदि। काशीनाथ सिंह और इब्राहिम शरीफ आधुनिकता से अलग हट कर जीवन की विसंगतियों में ही सही रास्ते की तलाश की कोशिश की है। अर्थहीन जीवन को अर्थ देने की यह प्रक्रिया स्वस्थ प्रवृति की सूचक है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें